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कविता

दर्पण-एक चित्र

प्रेमशंकर मिश्र


यह कैसा गतिरोध
सामने खड़ा हो गया है केसा दर्पण?
जैसे अपना भूत
मोह की मूरत बन कर
माँग रहा है
अपना पिछला लेख-जोखा
पूजा अर्चना
यह कैसा गतिरोध
सामने खड़ा हो गया कैसा दर्पण?

खेत और खलिहान
भाखड़ा नंगल का अभियान
हिमालय का अहरह आह्वान
एक-एक कर
अभी बहुत कुछ बाकी तो है
फिर कैसा गतिरोध
सामने खड़ा हो गया कैसा दर्पण?

दर्पण :
जिसमें जाली टेंडर
फर्जी कारगुजारी
कागज पर के उभरे प्रगति आंकड़े
और
सभों के नीचे
प्रतिशत वाली दस्‍ख़त
ये निर्माण अफसर
कुर्सी लेकर भागने वाले अग्रज
नए नए व्‍यापार
नई चौदह कैरेट वाली बाजारें
नए-नए भाई चारे की नई विधाएँ
और
नए सिक्‍कों में
उनके नए मोल ये
एक-एक कर
जैसे इसमें झाँक रहे हैं
और सभों के ऊपर
अपना उतराया सा कँपता चे‍हरा
जैसे अपनी ही आँखों में घुसता जाता।

यह दर्पण है
खुद से खुद का संघर्षण है
और कि जैसे
आगे की उर्वर धती, सोंधी मिट्टी में
मरे हुए सूखे मूल्‍यों का बीजवपन है
सारे थोथे श्रम का हासिल
जैसे केवल महामरण है।

ओ रे दर्पणदरसी!
कहता इसलिए हूँ
इतने दिन के पाले-पोसे घावों के
ओ मर्मस्‍पर्शी!

क्षण भर रुक कर
थकर झुक कर
नई शक्ति साहस बटोर कर
पगडंडी पर पसरे अपने इंद्रजाल को
तोड़ फोड़ दे
और
कारवाँ से मंजिल का टूटा रिश्‍ता
अपनी पीठ बिछाकर
मेरे दोस्‍त
जोड़ दे।


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